महाभारत युद्ध की शुरुआत में अर्जुन के कहने पर श्रीकृष्ण रथ को लेकर युद्ध भूमि के बीच में पहुंचे। भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के सामने ले जाकर रथ रोक दिया। जब अर्जुन ने कौरव पक्ष में अपने कुटुंब के लोग देखे तो उसने युद्ध करने से मना कर दिया।
श्रीमद् भगवद् गीता के पहले अध्याय में अर्जुन ने श्रीकृष्ण के सामने युद्ध न करने के लिए अपने तर्क रखे थे। दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि हर व्यक्ति को अपना कर्म करना चाहिए। फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। जो लोग अधर्म के साथ है, उनके साथ पूरी शक्ति के साथ युद्ध करना ही तुम्हारा कर्तव्य है।
श्रीकृष्ण ने कई तरह से अर्जुन के समझाने की कोशिश की, लेकिन अर्जुन की शंका दूर नहीं हुई थी। तीसरे अध्याय की शुरुआत में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि आप कर्म से ज्ञान को श्रेष्ठ बताते हैं तो युद्ध करने की क्या जरूरत है?
श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन कोई भी मनुष्य कर्म शुरु किए बिना लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकता है। कर्म का त्याग करने से कोई सिद्धि नहीं मिल सकती यानी कोई भी व्यक्ति लक्ष्य प्राप्त नहीं कर सकता है। कोई भी इंसान किसी भी अवस्था में पल भर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है। सभी लोग अपनी-अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कर्म जरूर करते हैं।
जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर, अपने भावों पर, अपने मोह पर नियंत्रण करके निष्काम भाव से यानी फल की चिंता किए बिना कर्म करता है, वही श्रेष्ठ होता है। हे अर्जुन, तुम शस्त्र विधि से तय किए हुए कर्म करो। कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ होता है। कर्म किए बिना तुम्हारे मनुष्य जन्म का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाएगा।
प्रसंग की सीख
इस प्रसंग की सीख यह है कि हमें हर परिस्थिति में अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। कर्म करें, लेकिन फल की इच्छा न करें। यही सुखी और श्रेष्ठ जीवन जीने का सूत्र है।
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