Gyan Ganga: जब मां सीता को पता चला, श्रीराम के दूत हैं महाबली हनुमान

श्रीराम जी की कथा है ही ऐसी, कि हृदय भले ही अथाह कष्टों में हो, लेकिन तब भी अगर, श्रद्धा और विश्वास से कथा को श्रवण किया जाये, तो निश्चित ही हम परमानंद की अनुभूति करते हैं। लेकिन बस! यह एक नियम का अवश्य पालन हो, कि कथा सुनाने वाला, श्रीहनुमान जी की भाँति ही, ब्रह्म ज्ञानी होना चाहिए। वह प्रभु से साक्षात मिला होना चाहिए। उसका मन ‘माया’ में नहीं, अपितु ‘मायापति’ से रमा होना चाहिए। फिर देखिए, कथा व्यास और श्रोता के मध्य कैसा तारतम्य बैठता है। श्रीजानकी जी को कथा में इतने आनंद की अनुभूति हुई, कि वे चारों ओर निहारने लगी, कि आखिर यह कथा व्यास कहाँ सुशौभित होकर इतनी सुंदर कथा बांच रहा है। निश्चित ही मुझे उन महान विभूति के दर्शन करने चाहिए-

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‘श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई।।’

माँ सीता ने सोचा, कि जितनी सुंदर व महान कथा चल रही है। क्या उतनी ही महान व सुंदर मूर्त, उन कथा व्यास की भी होगी? उनके श्रीमुख मंडल पर कैसा तेज होगा। निश्चित ही उन महान संत के दर्शन करके मैं धन्य हो जाऊँगी। पता नहीं वे मेरे इस विषैले दुख को ही समाप्त करने के लिए ही यहाँ न पधारे हों। लेकिन आश्चर्य है, कि वे महान संत मेरे समक्ष प्रकट क्यों नहीं हो रहे। श्रीहनुमान जी ने जैसे ही श्रीसीता जी के इन मनोभावों को सुना, तो वे यह सुन कर बहुत सुख का अनुभव करते हैं। और वृक्ष से नीचे ऊतर कर माँ जानकी जी के समक्ष प्रगट हो जाते हैं। आप सोच रहे होंगे, कि वाह! कितना महान मिलन होगा। कारण कि माता सीता जी भी तो कब से, श्रीराम जी की ओर से कोई मिलन की आहट व संदेश की राह देख रही थी, और श्रीहनुमान जी ने भी माता सीता जी से भेंट को लेकर, अपार संघर्षों को पार किया था। कितने मास के पश्चात, आज यह घड़ी का आगमन हुआ था। और हम भी यह कल्पना कर रहे होंगे, कि श्रीसीता जी, समस्त विधि विधान से पवनपुत्र श्रीहनुमान जी का पूजन व सम्मान करेंगी। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि जो उस समय घटा, वह समस्त संभवानायों व उपेक्षायों से विपरीत व परे था। जी हाँ। माता सीता जी ने बजाए इसके, कि श्रीहनुमान जी का सम्मान करती, वे तो उल्टे, श्रीहनुमंत लाल जी को देख,
उनसे मुख मोड़ कर ही बैठ गई-

‘तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ।।’

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कारण स्पष्ट था, कि श्रीसीता जी अपने समक्ष, किसी वानर रुप में कथा करते, किसी कथा व्यास की कल्पना नहीं कर पा रही थी। बल्कि एक ऐसे महापुरुष की कल्पना कर रही थी, जो मुनि वशिष्ठ जी अथवा ऋर्षि विश्वामित्र जी की भाँति तेजस्वी व महान हों। हालाँकि माता सीता जी अपनी इस दिव्य लीला से, समाज में व्याप्त उस रुढि़वादी सोच को प्रकट करना चाह रही हैं, जिसमें समाज का एक बड़ा वर्ग, उनसे ही कथा श्रवण करने की चाह रखता है, जो ऊँचे कुल से, दिखने में प्रभावशाली व बातों में अत्याधिक विद्वान प्रतीत होते हों। कथा व्यास के चेहरे पर तेज होना तो जैसे अनिवार्य सा माना जाता है। वे यह दृड़ भाव से माने बैठे होते हैं, कि सुंदर मुख से ही तो सुंदर वचनों का प्रवाह हो सकता है। साथ में एक पहलु, जो कि समाज की नस नस में व्याप्त है, वह यह कि नीच जाति वालों के लिए तो धर्म उपदेसक और कथा व्यास बनना, समाज की विवस्था में ही नहीं है। अगर कोई इस विवस्था को तोड़ता है, तो घोर अनर्थ हो गया माना जाता है। उनकी मानसकिता में यह काँटा बड़े गहरे से धँसा होता है, कि नाली की ईंट, कभी चौबारे को नहीं लगाया करते। यही मतांतर को माता सीता जी, स्टीक मौके पर, अपनी इस दिव्य लीला के माध्यम से हमारे समक्ष रख रही हैं। जैसे ही माता सीता ने, श्रीहनुमान जी को देख कर मुख मोड़ लिया। तो हम भलिभाँति यह जानते हैं, कि श्रीहनुमान जी को, असीम दुख व पीड़ा का अनुभव हुआ होगा। इसलिए नहीं, कि उन्हें अपने अपमान का अनुभव हुआ था। बल्कि इसलिए, कि बड़े ही कठिन प्रयास से तो यह शुभ घड़ी आई थी, कि माता सीता जी के दुखों पर तनिक मल्लम लग पाती। लेकिन श्रीसीता जी ने, अपना मुख मोड़ कर, मानों इसके लिए पूरा आधार ही छीन लिया था। वे तो श्रीहनुमान जी की तरफ झाँक भी नहीं रही थी। तब श्रीहनुमान जी ने कहा कि हे माता! आप मेरा विश्वास तो कीजिए। मैं भला कोई बेगाना थोड़ी न हूँ। बडे़ कठिन काल के पश्चात तो मैंने अपनी वास्तविक माँ का दर्शन किया है। और मेरा दुर्भाग्य, कि आपने मुझे देखते ही अपना ममतामई मुख मुझसे मोड़ लिया। ठीक है माते! आप कोई अनुचित भी तो नहीं कर सकती हैं। मैं हूँ ही इस लायक, कि मुझे देखते ही मुख मोड़ लेना चाहिए। कारण कि जो व्यक्ति अपनी आँखों के सामने, इतने समय तक, अपनी माता का अपमान, चुपचाप देखता रहे। और वृक्ष पर ही छुप कर अपने आप को सुरक्षित रखने के कुप्रयास में ही संलग्न रहे, भला उसे अधिकार ही क्या है, कि वह आप को ‘माँ’ शब्द से संबोधन करे। मेरे पाप यहीं तक सीमित होते, तो शायद तब भी कोई बात नहीं थी। लेकिन मैं तो जन्म से ही, स्वार्थी व स्वयं केद्रित हूँ। कारण कि आपको इस धरा पर अवतार लिए तो घना समय बीत चुका है। ओर मैं विषयी ऐसा, कि आज तक अपनी माता के दर्शनों के लिए जनकपुरी अथवा अयोध्या की दूरी नहीं पाट पाया। हे माता! आपने अगर मेरी इस दुष्टता के चलते मुझसे मुख मोड़ा है, तो निश्चित ही आपने उचित ही किया। आप मुझे कोई भी दण्ड़ देंगे, तो मुझे सहर्ष स्वीकार होगा। लेकिन अगर कहीं आप यह सोच रही हैं, कि मैं आपसे कोई छल करने यहाँ पहुँचा हूँ, तो यह सहन करना मेरे लिए अतिअंत कठिन होगा। ऐसा कुछ नहीं, कि मेरा आपके समक्ष उपस्थित होने में रावण की कोई चाल है। सच में, मैं श्रीराम जी की शपथ लेकर कह रहा हूँ, कि मैं श्रीराम जी का ही दूत हूँ। आप विश्वास कीजिए, मैं सत्य भाषण कर रहा हूँ। आपको जो यह मुद्रिका मिली है, यह मुझे ही प्रभु श्रीराम जी ने आपको देने के लिए बोला था। और कहा था, कि इस मुद्रिका को देखने के पश्चात, आपका विश्वास जाग्रित हो जायेगा-

‘राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की।।
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी।।’

श्रीसीता जी के हृदय पर, श्रीहनुमान जी के इन वचनों का क्या प्रभाव पड़ता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।

- सुखी भारती


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